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आचार्य श्रीराम शर्मा >> हमारा यज्ञ अभियान

हमारा यज्ञ अभियान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4191
आईएसबीएन :0000

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हमारा यज्ञ अभियान

Hamara Yagya Abhiyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति का पिता यज्ञ-यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यह इसका आदि प्रतीत है। हमारी संस्कृति में वेदों का जितना जिक्र किया गया है, उतना अन्य किसी विषय का नहीं है। वास्तव में वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान रहा है। यज्ञ को इसका प्राण कहें, तो गलत नहीं होगा। प्राचीन भारत की कल्पना करते ही मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ करते हुए ऋषि-मुनियों के चित्र बरबस ही आँखों के सामने आ जाते हैं। ऋषि मुनि ही क्यों, आम जनता धनी-मानी और राजा लोग सभी के हृदय में यज्ञ के प्रति अगाध श्रद्धा थी और इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। साधु-ब्राह्मण लोग तो एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म में ही लगाते थे। यज्ञ द्वारा ही मनुष्य संस्कारित होकर शूद्र-पशु से ब्राह्मण-देवत्व को प्राप्त होता है, यह बात प्रचलित थी। उस काल की सुख-समृद्धि -शांति में यज्ञों का सबसे बड़ा हाथ था। हो भी क्यों न, आखिर ऋषियों ने इसकी खोज मनुष्य, समाज और सृष्टि के रहस्यों की गहरी समझ के आधार पर की थी।

समय बीतने के साथ तमाम उतार-चढ़ावों के बीच हम यज्ञ की उपयोगिता व इसके मूल उदे्श्य को भूल गए। इसे आज की हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कहे, तो गलत न होगा। संतोष इतना भर है कि हम अपनी यज्ञीय परम्परा को अभी भुलाए नहीं हैं और प्रतीक पूजा के रूप में ही सही; किन्तु इसकी लकीर पीटते हुए इसकी प्राणशून्य लाश को ढो रहे हैं। आज भी यज्ञ इसी रूप हमारे जीवन-मरण का साथी है। हमारा कोई भी शुभ या अशुभ कर्म इसके बिना पूरा नहीं होता। जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी सोलह संस्कार हैं, सभी में यज्ञ कम या अधिक रूप में अवश्य किया जाता है और दो में तो इसी की प्रधानता रहती है।

विवाह की रस्म यज्ञ-अग्रि की साक्षी में ही पूरी होती है। वर-वधू मिलकर इसकी परिक्रमा एक साथ पूरी करते है समझा जाता है कि यज्ञाग्रि वर-वधू की आत्मा को अटूट बन्धन में बाँध देती है जिसे कि वेल्डिंग द्वारा लोहे के दो टुकड़ों को जोड़ा जाता है। अन्त्येष्टि संस्कार पूरी या अधूरी विधि के साथ जैसे भी किया जाता है। इसमें यज्ञ से जुड़े कितने ही नियमों का पालन किया जाता है। पूर्णाहुति के रूप में कपाल-क्रिया, घृत आहुति के साथ पूरी की जा है। चिता एक तरह से बड़ी आकृति का यज्ञ ही तो है। इसमें मृत देह की आहुति चढ़ाते हुए यज्ञ भगवान को अर्पित किया जाता है। देव-संस्कृति के पुण्य प्रतीक यज्ञोपवीत का तो नाम ही यज्ञ से जुड़ा हुआ है।

 इस पवित्र सूत्र को यज्ञ की साक्षी में ही धारण किया जाता है।
ऐसे ही कथा-कीर्तनों, व्रत-उपवास और पर्व-त्यौहारों आदि में यज्ञ किसी रूप में अवश्य ही जुड़ा रहता है। यह बात दूसरी है कि लोग इसका सही-सही विधान और महत्त्व भूल गए हैं और चिन्ह पूजा करके काम चला लेते हैं। महिलाएँ आज भी चूल्हे के अंगार निकालकर उस पर घी, पकवान, मिष्ठान्न या लोंग आदि चढ़ाकर व जल का घेरा लगाकर यज्ञ की प्रतीक पूजा पूरी कर लेती हैं। पर्व-त्यौहारों में होली तो यज्ञ का ही त्यौहार है। आज अधिकांश लोग इसे खाली लकड़ी या उपले जलाकर ही मनाते हैं, किन्तु शास्त्रों में इसका उल्लेख विशुद्ध रूप से यज्ञ के रूप में हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह फसल पकने की खुशी से जुड़ा है। इसमें नई फसल को सबसे पहले यज्ञ भगवान को अर्पित करके फिर संस्कारित अन्न को ग्रहण करने का उच्च भाव जुड़ा हुआ है।

गीता पाठ, सत्य नारायण व्रत कथा, भागवत सप्ताह रामायण पारायण जैसे धार्मिक कर्मों में यज्ञ आवश्यक रूप से किया जाता है। साधना अनुष्ठानों में चाहे वे वेदोक्त हों या तांत्रिक हवन अवश्य ही जुड़ा रहता है। यज्ञ के बिना गयत्री साधना को अधूरी माना जाता है। इसके अनुष्ठान व पुरश्चरण में जप का दशवाँ या सौवाँ हिस्सा हवन किया जाता है। देवी-देवताओं का पूजन किसी न किसी रूप में यज्ञ से ही जुड़ा रहता है। पूजा -पाठ आदि में जलने वाले धूप-अगरबत्ती और दीप आदि को यज्ञ का ही छोटा रूप कह सकते है। जिसमें अगरबत्ती हवन सामग्री के और दीपक घृत आहुति के प्रतीक होते हैं।

तीर्थ स्थलों का यज्ञ से गहरा सम्बन्ध रहा है। प्राचीन काल में तीर्थ वहीं बने हैं जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। ‘प्रयाग का नाम याग शब्द से जुडा़ हुआ है। याग का अर्थ यज्ञ है। यज्ञ की बहुलता के कारण ही यह स्थान तीर्थराज प्रयाग कहलाया। काशी-वाराणसी के दशाश्वेमेध घाट पर भगवान राम द्वारा अश्वमेध स्तर के यज्ञ करवाए गये थे। इसी के प्रभाव से इसे प्रमुख तीर्थ का दर्जा प्राप्त है। ऐसे ही कुरुक्षेत्र, रामेश्वर, नैमिषारण्य आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बड़े-बड़े यज्ञों से ही उद्भूत हुए हैं।

यज्ञ की विशेषता के कारण ही भारत भूमि को कर्मभूमि कहलाने का गौरव प्राप्त है। ब्रह्मपुराण में वर्णन आता है कि ‘‘भारत भूमि के यति लोग तपश्चर्या करते हैं, हवन करते हैं तथा आदरपूर्वक  दान भी देते हैं। जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान का यजन हुआ करता है। यज्ञ के कारण यज्ञ पुरुष जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारत वर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे कर्मभूमि तथा अन्य द्वीपों को भोगभूमि कहते है।’’

वास्तव में यज्ञ अग्रि के रूप में भगवान की उपासना का शुभारंभ हमारे आदि पूर्वजों की विश्व को एक अद्भुद देन है। ईश्वर स्वयं में निराकार है और मनुष्य की इंद्रियों और मन-बुद्धि की पकड़ से बाहर है, व्यावहारिक रूप से हम उसके दर्शन व्यक्ति के सद्गुण, सच्चिंतन और सत्कर्म के रूप में कर सकते हैं। दूसरा हम इस विश्व-ब्रह्माण को उसका विराट् रूप मानतें हुए। सेवा –साधना द्वारा उसकी आराधना कर सकते हैं। उपासना के पूजा-प्रतीक के रूप में उसका अग्रि से बेहतर और कोई प्रतीक नहीं हो सकता। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के पहले मंत्र ‘अग्रिमीडे पुरोहितं’ में ईश्वर की प्रतिमा के रूप में अग्रि को लिया गया है। इसी को अलग-अलग नामों से ब्रह्मतेज, दिव्य ज्योति, पवित्र, प्रकाश, डिवाइन लाइट, लेटेन्ट लाइट आदि रूपों में जाना जाता है। ‘अग्रे नय  सुपथा राये’ मंत्र में इस सर्वसमर्थ शक्ति से सही मार्ग पर घसीट ले चलने की प्रार्थना की गई है। यही भाव गायत्री मंत्र के ‘धियो ये नः प्रचोदयात्’ भाग में की गई प्रार्थना का है।
 
यज्ञ का अर्थ क्या है ?-मोटे रूप में यज्ञ की समझ अग्रि कुण्ड में मंत्रोच्चारण के साथ हवन सामग्री की आहुति से जुड़ी हुई है। यह तो यज्ञ का कर्मकाण्डीय और भौतिक पक्ष है। इसे सामान्य रूप से हवन के नाम से जाना जाता है। इसी का दूसरा नाम ‘अग्रिहोत्र’ है। किंतु यज्ञ स्वयं में बहुत गहरा और व्यापक अर्थ लिए हुए है। यह, संस्कृत के यज् धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है-देवपूजन, संगतिकरण और दान।

आध्यात्मिक रूप में देवपूजन का अर्थ हुआ- ईश्वरीय शक्तियों की उपासना व आराधना; संगतिकरण का अर्थ हुआ- उनकी समीपता और संगति, तथा दान का  अर्थ हुआ-अपनी समझी जाने वाली वस्तुओं का उनको अर्पित कर देना।
व्यावहारिक जीवन में अपने से बडे़ और पूज्य लोगों का सम्मान करना देवपूजा है; जो अपनी बराबरी के हैं उनकी संगीत व मैत्री यह संगतिकरण हुआ और जो अपने से छोटे हैं व कम साधन व शक्ति वाले हैं, उनकी किसी रूप में सहायता करना दान है।      श्रेष्ठ गुणों वाले सत्पुरुषों की सेवा, संगति और सहयोग देना भी यज्ञ है। इसी तरह से ईश्वर की उपासना, अच्छाई-सद्गुणों की वृद्धि और आपसी सहयोग-सहकार भी यज्ञ माने जाते हैं।
 
सामान्य रूप से प्रचलित हवन या अग्रिहोत्र में यज्ञ की ये विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं। मंत्रोच्चारण के साथ देव शक्तियों का आवाहन, पूजन व सम्मान किया जाता है। हवन यज्ञ को मिलजुलकर, आपसी सहयोग द्वारा ही सामूहिक रूप से किया जाता है। अपने भाव भरे सहयोग व साधन-सामग्री के रूप में दान कि क्रिया सम्पन्न होती है।
यज्ञ में ‘इदं न मम’ के त्यागमय जीवन का आदर्श भरा हुआ है। इस भावना के विकास से ही एक सभ्य समाज का निर्माण सम्भव है। अपनी प्रिय वस्तुएँ  घृत, मिष्ठान्न, मेवा, औषधियों, अन्न आदि का हवन करके उन्हें पूरे समाज को बाँटकर हम जीवन को यज्ञमय बनाने का अभ्यास करते हैं। इसी तरह मनुष्य अपनी सम्पत्ति, योग्यता, विद्या, प्रतिष्ठा, प्रभाव, पद आदि का उपयोग अपने सुख के लिए कम से कम करके, समाज को उसका अधिक से अधिक लाभ दे, यही भाव यज्ञ में भरा हुआ है।

इस तरह यज्ञ का मोटा अर्थ है – पुण्य परमार्थ व उदार सेवा-साधना। यह अपनी स्वार्थी कृपण व विलासी वृत्ति का त्याग करते हुए सबकी भलाई में अपनी भलाई समझने का श्रेष्ठ मार्ग है। साररूप में यज्ञ अपनी इच्छा से आन्नदपूर्वक करना त्याग करना है, जिससे कि दूसरे लोगों को भी उसका लाभ मिल सके।
सृष्टि चक्र की धुरी यज्ञ- वास्तव में सारी सृष्टि का आधार ही यज्ञ है। इसकी उत्पत्ति ही यज्ञ से हुई है और इसका जर्रा-जर्रा इसी भावना के आधार पर चल रहा है। श्री मद्भागवत में यज्ञ से सृष्टि रचना का प्रसंग विस्तार से चर्चित है। गीता में भी श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं- सृष्टि यज्ञ द्वारा ही उत्पन्न हुई है और यज्ञ से ही उसकी स्थिति है।

इसी क्रम में समुद्र उदारतापूर्वक अपना जल बादलों को देता है, और बादल बड़ी मेहनत से उन्हें ढ़ोकर दूसरे स्थान तक ले जाते है। सूर्य अपना ताप देता है, जिसे ग्रहण करके बादल धरती पर बरसते हैं। वहां नदी-नाले आदि इसके जल को धारण करते हैं और मनुष्य, जीववंतु तथा धरती की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष-वनस्पति, फूल-फल अपना लाभ दूसरों को ही देते हैं। सूर्य, चन्द्र, वायु, नक्षत्र आदि दूसरों के लाभ के लिए ही चल रहे हैं।  

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